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बादलों ने
फिर धरा की देह धोई |
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बादलों ने फिर धरा की देह
धोई
फिर नदी ने पाँव पर्वत
के पखारे!
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जब वहाँ
नदिया नहीं बोई गई थी
और सारे घाट गूँगे हो गए थे
मुस्कुराहट जन्म लेना चाहती थी
स्वर अचानक किंतु सारे खो गए थे
इक लहर उस पार से संवाद लाई
और बतियाए किनारों
से किनारे!
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बादलों ने फिर धरा की देह धोई
फिर नदी ने पाँव पर्वत
के पखारे!
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मौसमों के
व्याकरण उलझे हुए थे
थी हवाएँ लाँघती रेखाएँ सारी
बहुत रूखे हो गए थे भाव अपने
बहुत रेतीली हुई भाषा हमारी
बूँद ने भाषा भिगोकर नर्म कर दी
और उजले कर दिए है
भाव सारे!
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बादलों ने फिर धरा की देह धोई
फिर नदी ने पाँव पर्वत
के पखारे!
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देर तक
मन में छिपे भावों सरीखा
मेघ का ठहरा हुआ जल झर गया है
था धरा का गात पीले पात जैसा
कौन आकर चित्रकारी कर गया है ?
मेघ जैसे राम है धरती अहिल्या
राह तकती थी कोई
आकर उबारे!
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बादलों ने फिर धरा की देह धोई
फिर नदी ने पाँव पर्वत
के पखारे!
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- चित्रांश वाघमारे |
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इस माह
(बादल
विशेषांक में)गीतों में-
अंजुमन में-
तुकांत और
अतुकांत
में-
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