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             बादल

 
 
गर्मी में तपती धरा, बढ़ती उसकी प्यास
जल समेटने तुम चले, सर सागर नद पास

बूँद बूँद से फिर धरे, तुमने कितने रूप
जीव जंतु सब निरखते, जब तड़पाती धूप

अम्बर में जब छा गए, लेकर तुम बहुरूप
आकर्षित सब को करें, मेघा तेरे रूप

धरती की हर वस्तु का, रख कर रूप विधान
क्षण भर में फिर बदलते, होते अंतर्ध्यान

जीवनदाता हो सदा, सबके पालन हार
प्यास बुझाते हो तुम्हीं, बूँद बूँद में प्यार

देख तुम्हारी छवि यहाँ, नाचे वन में मोर
सावन में सजती धरा, कजरी तीज हिलोर

कृषि किसान का आसरा, बादल ही भगवान
अन्न सम्पदा तब बढ़े, दो वर्षा अनुदान

मोती बूँदे जब झरें, धरती हो खुशहाल
जो तुम रूठे तो कहाँ, जाएँ जन बेहाल

लोभ स्वार्थ से हम घिरे, करके अनगिन भूल
रूष्ट किया जब जलद को, फटकर बरसें शूल

झट कर दें चेतावनी, संभलें अब इनसान
वृक्ष, नदी पर्वत गिरें, जन धन का नुकसान

- ज्योतिर्मयी पंत
१ अगस्त २०२४

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