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       गगन में जलद

 
 
नद्य झील सागर का पानी, दूर गगन में जलद बनाते
तप्त धरा की प्यास बुझाने, बादल फिर बूँदे बरसाते

चक्षु पखेरू बन कर उड़ते, पार बादलों के जब देखा
कहीं धवल दाढ़ी लगते या, काले कुंचित केश लजाते

उमड़-घुमड़ कर गरज-बरस कर, तम के बादल छाए चहुँ दिशि
तूफानों में अविचल हैं जो, अपनी राहें स्वयं बनाते

मनमानी करते जब बादल, त्राहि-त्राहि करता जनजीवन
दुष्कर्मों की कीच उछालें, उन्नति को तब धता बताते

एक समान बरसते बादल, आवभगत पर अलग रही है
कहीं चली कागज की नैया, कहीं जाग खटिया खिसकाते

रुष्ट प्रकृति जब हो जाती है, रौद्र रूप उसका फिर दिखता
कहीं अचानक बादल फट कर, मानव को फिर सीख सिखाते

शोर मचाकर अफरातफरी, बादल बन संसद में बरसें
लोकतंत्र भीगा-सीला सा, नेता कैसा देश चलाते

मेघ उतर कर उर आँगन में, भिगो चले ज्यों सावन बरखा
झांझर बजती हवा चली जब, दग्ध हृदय शीतल हो पाते

- अनिता सुधीर आख्या
१ अगस्त २०२४

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