अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


       दिलदार बादल

 
 
उफ़क पर छा गये दिलदार बादल
ले आये सावनी त्योहार बादल

सुनी जो आह धरती की मुसलसल
बरसने को हुए तैयार बादल

नरम फाहे से दिखते नभ में अनगिन
सजल मोती के होते हार बादल

गरज से अपनी जो दहला रहे दिल
छुपाये हैं असीमित प्यार बादल

झुका अम्बर धरा पर तो बरस कर
ख़ुशी का कर रहे इज़हार बादल

कभी चैती कभी कजरी की धुन में
ढली बूँदों की है झंकार बादल

भरे हों चाहे जितने पानी से पर
नहीं बरसे तो हैं बेकार बादल

कभी बरसे कभी सूखे ही गुज़रे
नहीं रहते कभी यकसार बादल

- आभा खरे
१ अगस्त २०२४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter