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          मेघ हैं प्रतिबिंब

 
 
मेघ हैं प्रतिबिंब
धरती के विविध शृंगार के

नभ रहा दर्पण हमेशा
जो दिखा दिखला दिया
मेघ-नभ के इस युगल ने
क्या नहीं सिखला दिया!
क्या बतायें मोल हम
इस कुदरती उपकार के

जब जहाँ धरती हँसी
तो मेघ का सौष्ठव खिला
यदि कहीं रोयी धरा तो
मेघ भी सिकुड़ा मिला
सत्य ये अनुभव करेंगे
संत-मन संसार के

पीढ़ियों की सीढ़ियाँ
चढ़ती मनुजता जा रही
मेघ-गर्जन अनसुनी कर
स्वयं को बिसरा रही
मात्र गर्जन हैं नही वे
शब्द हैं चीत्कार के

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
१ अगस्त २०२४

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