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         अंततः आ ही गए बादल

 
 
अन्ततः आ ही गए बादल घुमड़कर
श्रावणी शृंगारिका से केश
लहराते हुए

लगी झरने
बूँद मेघों को चुआती
उठी सौंधी गंध धरती के बदन से
ले रहे अंगड़ाइयाँ अब पेड़-पौधे
टहनियों ने तृप्ति पाई है गगन से
जग गया यौवन, कुवाँरा छोड़ तन्द्रा
रोम-रन्ध्रों से मदालस
रागिनी गाते हुए

आ गईं बौछार
खिड़की खोलकर अब
छू दिए जो अंग मदमाने लगे हैं
तोड़कर अंगड़ाइयों की वर्जनाएँ
मेह, हर्षित देह सहलाने लगे हैं
बाल, वृद्धों में पुलक, पावस-परस से
लाज से सिमटी नवेली
नैन शरमाते हुए

- जगदीश पंकज
१ अगस्त २०२४

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