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        बादल रहे बरसते

 
 
बादल अबकी रहे बरसते
किन्तु भीग न पाये हम

चौखट में चन्दा दुबका था
सूरज घर की आलमारी में
तारों का अम्बार लगा था
आँगन की चारदिवारी में
विश्व विजय का सपना देखा
तुम्हें जीत न पाये हम

पुरवा का जादू छाया था
मौसम से गहरी यारी थी
घोड़े हाथी ऊँट बग्घियाँ
पूरी अपनी तैयारी थी
मानी सबने बात हमारी
तुम्हें साध न पाये हम

नदिया झील समन्दर झरने
दिखलाते थे दृश्य अनोखे
आओगी वरमाला लेकर
झाँक रहे थे स्वयं झरोखे
कण-कण जगती हुई हमारी
तुम्हें समझ न पाये हम

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर'
१ अगस्त २०२४

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