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             बादल

 
 
नीलाभ गगन के प्रांगण में
अठखेली करते घूम रहे
इधर-उधर जलधर ऐसे
फिरते हों जैसे बाल वृंद

घटता-बढ़ता आकार सदा
एहसास दिलाता कुछ ऐसा
हिमखंड पिघलते जमते हों
धीरे-धीरे ज्यों यहाँ वहाँ
या फिर रूई के फाहों को
ज्यों धीरे कोई दबा रहा

ये शुभ्र वर्ण, ये श्वेत वसन
कुम्हलाया चेहरा पीत वदन
हो गया अचानक श्याम गात
मानो घनघोर उदासी ने
कस कर घेरा हो मेघों को
बादल बालक बन बरस पड़ा
ज्यों सघन भूत होती पीड़ा
आँसू बन दृग से टपक पड़े
जब रोते रोते रीत गया

हँस पड़ा अचानक अम्बुद यों!
मानो भारी होती आँखें
थीं अनायास ही छलक गईं
नभ साफ़ हुआ धुलकर चमका
बस तभी पवन का इक झोंका
संदेश कान में सुना गया
आ धमका सूरज तभी वहाँ
अपना तपता आनन लेकर
छितराये डरकर बादल यों
छिपने को ढूँढ रहे जैसे
हों ठौर ठिकाना कुछ बालक

- अलकेश त्यागी
१ अगस्त २०२४

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