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      आए बादल लिये पोटली

 
 
आए बादल लिए पोटली
पूछ रहे सब उसमें क्या-क्या

वो बोला पानी लाया हूँ
मैं बोली बरसा दो भैया
लिए कटोरा दौड़ी दुनिया
वो भागा कह दैया-दैया
दिन लौटा फिर आसमान का
आँख दिखायी अंगारों सी
रंग बदलने वाले गिरगिट
जाता है तू? जल्दी जा-जा

उधर पड़ी मुँह झाँपे धरती
नाखूनों से धरती नोचे
छुपा गया जो बादल बूँदें
कैसे पहुँचे मन में सोचे
ख़ुद न जाने कहाँ छुप गया
दिखे नहीं परछाई उसकी
मन करता है धरती के संग
मैं भी रोऊँ करके भाँ-भाँ

सोच रही हूँ आज बनाऊँ
बादल उड़ता एक किचन में
भरूँ भगोना भर मैं पानी
जले उछल चिपके ढक्कन में
गर्म ताप में उबले पिघले
भाप संग नाचे उछले
ठंडा हो ज्यों उड़ना चाहे
उसे लगाऊँ चाँटा-चाँटा

बादल की ये आँखमिचौली
चली आ रही है सालों से
घिरा हुआ! छाया भी देखूँ
छँटा-कटा घिरकर व्यालों से
वो आया न पपिहा आए
दादुर न झींगुर न मेढक
खेत खड़ा हलवाह पुकारे
निकल गया वह करके टाटा

- जिज्ञासा सिंह
१ अगस्त २०२४

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