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मुद्दतों में अब मिला कुछ
ढँग का अवसर
यों कि हमने ढँग के अवसर जिये हर बार
ये बड़ा अड़भंग-सा, बेढँग-सा त्यौहार
क्या ज़रूरी है, हमेशा औपचारिक हों
क्या ज़रूरी है, सलीका ही जिएँ हर बार
फिर भले खुशरंग हों बदरंग हों चाहे
बन गया मेहमान देखो
रंग का अवसर
साल-भर का जो भरा विद्वेष जीवन में
जो कहीं मालिन्य हो अवशेष जीवन में
दग्ध करिये आज उसको आग की लौ में
हो मसृण ही भस्म उसकी शेष जीवन में
जो सघन विद्वेष हो उसको तरल करिये
दूर करिये, आ गया यदि
जंग का अवसर
पर्व हो या पर्व की हो सन्धि, हो रसमय
प्राप्त जो भी भोग हों, हो भोग वे मधुमय
प्रेम का उद्दाम सागर हो न यदि मन में
नृत्य-गायन से सधे तब प्रेम का अभिनय
व्यर्थ जाने दें न इसका एक भी पर पल
आ रहा आनन्द और
उमंग का अवसर
मानता हूँ, झूठ के ही दाँत दीखेंगे
हम ज़रा-सी देर को तो साथ दीखेंगे
खुल सकेगी तब सजीली याद की पुस्तक
देख लो, हम हाथ में ले हाथ दीखेंगे
डूबने को हो नहीं पर्याप्त पर चाहे
पर न आने दीजिये
रसभंग के अवसर
मद ज़रा घट जय, उसका कीजियेगा यत्न
साधिये सब युक्तियाँ, कुछ छोड़िये न प्रयत्न
जो हँसी आकर अधर पर बैठ जाती है
मूल्य में उससे अधिक कोई नहीं पर यत्न
मद वही, जो बोल उट्ठे शीश पर चढ़कर
है ज़रूरी एक मदमय
भंग का अवसर
रंग के आ रंगद्वीपों की करें अब सैर
रंग का होता नहीं है रूप से कुछ बैर
रंग में तन क्या, हमारा भीग जाए मन
और जाएँ तन-बदन में मस्तियाँ भी तैर
फिर डुबाए टेसुओं के फूल का पानी
गंध से फिर-फिर मिले
अभ्यंग का अवसर
- पंकज परिमल |