अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

 

होली आई है

तारीखों ने ये बतलाया
होली आई है
पर दिल ने अब तक होली की
आहट कहाँ सुनी

अक्षत दुख से पीले पीले
गुड़ क्यों फ़ीका फ़ीका
सरस हुआ बिन पानी कैसे
ये होली का टीका
काँप रहें हैं हाथ बहन के
बोझ उठाये कैसे
मुस्कानों की कुमकुम ने ये
थाली नहीं चुनी

लाल रंग क्या अब भी दिखता
उतना ही चटकीला
हरा, हरा करता है क्या मन
पीला है क्या पीला
दृष्टि दोष कुछ मुझे हुआ क्या
रंग नहीं पहचानूँ
क्यों पलकों ने सिर्फ धवल सी
चादर एक बुनी

चंग उदास टँगी खूंटी पर
अब कैसे बहलाऊँ
यादों का सीलापन हरने
धूप कहाँ से लाऊँ
गीत अबोले भाव अछूते
थाप मौन ढफली की
अंतस की आवाज़ अजानी

शब्दों ने न गुनी
दुनियादारी करते करते
दुनिया छूट रही क्यों
जुड़ते जुड़ते बाहर सबसे
भीतर टूट रही क्यों
शुभ के शगुन तुम्हारे बिन हों
कैसे पूरे भाई
रस्में खुशियों वाली आतीं
टीस लिए दुगुनी

- निशा कोठारी
१ मार्च २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter