शर्मीले गीत
कहीं चुटकीले छंद हैं
मदमाये फागुन के
अजब गजब रंग हैं.
बौराये आमों से कैरी मुसकाएँ
टेसू निर्लज्ज खड़े पलकें झपकाएँ
पछुवा की झकझोरें
करती हुड़दंग हैं.
अरहर के गुलदस्ते अकड़-अकड़ डोलें
सरसों की फलियाँ भी रुनझुन झुन बोलें
सेमल का रूप निरख
तोते सब दंग हैं.
मँहगाई जन जन का बजा रही बाजा
राजनीति की बिसात पर बैठे राजा
बूढ़े पीपल शायद
बन गये मलंग हैं.
- अनिल कुमार वर्मा
१ मार्च २०१८ |