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आए तुम बनकर
के पाहुन
बस गया तन-मन में फागुन
हो गया तन-मन गुलाबी
झूमता यह ज्यों शराबी
ठहरने को जी न चाहे
थिरकने की आज है धुन
आज फूली मन में सरसों
तुम कहाँ थे मीत, बरसों
कितने वासंती गए दिन
ख़ाली-ख़ाली और गुमसुम
यह न बिल्कुल मानता है
रंग टेसू डालता है
और अधरों पर उतर कर
गा रहा है राग गुन-गुन
मन गुमानों से था ऐंठा
आज मिलजुल पास बैठा
गुदगुदी-सी हो रही है
रसभरी बातों को सुन-सुन
- राममूर्ति सिंह ‘अधीर’
१ मार्च २०१८ |