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यह रंग पर्व है

यह रंग पर्व है गाढ़े रँग से बंधु रँगो तुम
जो कभी न छूटे

पहले तो तुम रँगना भाई खुद के कोरे अंतर्मन को
बंधु! नहीं कुछ भी बदलेगा यदि रँग लोगे केवल तन को
यह नेह पर्व है पोढ़े ढँग से बंधु बँधो तुम
जो कभी न टूटे

सुंदर सुरभित मलय समीरण फागुन घूमे नदी किनारे
इधर कोकिला राग उचारे वनकन्या को संत पुकारे
यह गंध पर्व है महुवा वन के साथ रहो तुम
जो कभी न रूठे

इधर चैत में मादल वंशी दूर क्षितिज तक पड़े सुनाई
फसलें पकी चलीं खलिहाने घर-घर में बजती शहनाई
यह प्रकृति पर्व है अपनेपन का पात्र भरो तुम
जो कभी न फूटे

बंधु ! मिलाना इस रंग में तुम गंध बौर की, फगुनाई को
टेसू की गदराई कलियाँ कंदर्प भरी पुरवाई को
यह ज्ञान पर्व है ज्ञानी ऐसा ज्ञान रचो तुम
जो कभी न लूटे

- ब्रजनाथ श्रीवास्तव
१ मार्च २०१८

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