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कैसी ये
होरी आई
अल्लहड़ फागुन छैल छबीला
बाँकी छोरी पुरवाई
बातों-बातों बात बढ़ी फिर और बढ़ी रूठा-रूठी
सुनकर ताने पुरवा के अब फागुन बोला जा झूठी!
मौसम के बदले तेवर पर
पुरवाई है गुस्साई
रंग डाली हर एक दिशा, रंगों ने रंगा उदयाचल
महुए की कोपल संग डोले यौवन का कोरा आंचल
पहले-पहल हो भंग चखी
यों बौराई है अमराई
फागुन नैना-नैना भर दे अब तो सतरंगी काजल
आज अफ़ीमी रंगों से रंग बैठा है हर इक बादल
रंगरेजी पागुन, फूलों ने
रंगवाई है तरूणाई
ओस नहाई भोर धूप की चादर ओढ़े दोपहरी
पवन ठिठक कर चलती है, कुछ शाम लगे ठहरी-ठहरी
दुल्हन जैसी आज दिवस की,
अंगड़ाई है शरमाई
रोके से भी रुक पाए ना अब फ़ागुन मनमानी
रंग-चंग, मद और हवाएँ सबने जाने क्या ठानी
उत्सव ने घर-आँगन जैसे
बजवाई है शहनाई
- मनीषा शुक्ला
१ मार्च २०१८ |