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तपता अंबर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण!
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त्रस्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी
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चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन!
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जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी
तपती देह लिए जाते हैं
जिनकी दुनिया न कभी हारी
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जग-पोषक स्वेद बहाता है
थकित चरण ले, बहते लोचन!
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भवनों में बंद किवाड़ किए
बिजली के पंखों के नीचे
शीतल खस के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे
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वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन!रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल
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तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण!
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- डॉ. महेन्द्र भटनागर |