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बंधु, झुलसी छाँव के नीचे
खड़े दिन
चिता-होती साँस सूरज की
नदी को हेरती है
याद में जो रात बरखा की -
उसी को टेरती है
बड़ी-बूढ़ी पत्तियों के सँग
झड़े दिन
बंधु, झुलसी छाँव के नीचे
खड़े दिन
राह सूनी दोपहर की
तपन की गाथा सुनाती
अगिनपाखी हुई किरणें
मृत्यु का हैं गान गाती
धूप में सूखी तलैया में
गड़े दिन
बंधु, झुलसी छाँव के नीचे
खड़े दिन
शापभ्रष्टा शाम फुनगी पर
पड़ी है धुआँ ओढ़े
जल रहे आकाश के भी
हो गये हैं दर्द पोढ़े
गा रहे चैती मसानों में
पड़े दिन
बंधु, झुलसी छाँव के नीचे
खड़े दिन
- कुमार रवीन्द्र |