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दिन भट्ठी
सा |
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दिन भट्ठी सा
दहक रहा है रातें जलकर राख हों जैसे
दरकी धरती माँ की छाती खुली
शम्भु की आँखें जैसे
1
सन सन सन्नाटे का चाबुक
रोज धूप का चढ़ता पारा
ग़र्म हवाओं के तांडव से
आतंकित है दिन बेचारा
चाँद लगे सूरज का भाई
कटती नहीं रात है ऐसे
करवट लेती उमस और भी
ढीठ हुई पुरवाई जैसे
1
हवा बवंडर आँधी बन कर
उड़ा गई उम्मीद के कतरे
अख़बारों में छपी थी कल भी
आगज़नी की झुलसी ख़बरें
सूरज ज्वाला मुखी उगलता
दौड़ रहा सड़कों पर कैसे
मन सैलानी ढूँढ रहा है
उत्तर जलते जलते फिरसे
1
व्याकुल ताल तलैया पोखर
रही दिवस भर चिड़िया प्यासी
मीन जली पानी के भीतर
नदी निर्जला हुई उपासी
सूखे पत्ते झरते झर झर
खाल तने की छीले कैसे?
जेठ दुपहरी काल कूट सी
हरियाली सब लीले ऐसे
1
- रंजना गुप्ता |
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इस माह
ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
ग्रीष्म महोत्सव की रचनाओं में-
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