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बेचैनी बढ़
रही धरा की |
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बेचैनी बढ़ रही धरा की,
पशु-पक्षी बेहाल
सूरज बाबा सजा रहे हैं,
अंगारों का थाल
दिखते नहीं आजकल हमको,
बरगद, पीपल, नीम
आँगन छोड़, घरों में बालक,
देखें छोटा भीम
आये बौने पेड़ विदेशी,
फैलाने जंजाल
बेचैनी बढ़ रही धरा की,
पशु-पक्षी बेहाल
सूख गया पानी नदियों का,
फुल हैं स्विमिंग पूल
नहरें पूछ रही बाँधों से,
गए हमें क्यों भूल
पाट दिए दाऊ-दादा ने,
नदिया, पोखर, ताल
बेचैनी बढ़ रही धरा की,
पशु-पक्षी बेहाल
टुकुर-टुकुर देखे गौरैया,
कहीं न दिखती छाँव
छानी तरस रही कब से,
सुनने कागा की काँव
मुश्किल से ही दिख पाते अब,
गाय और गोपाल
बेचैनी बढ़ रही धरा की,
पशु-पक्षी बेहाल
- बसंत कुमार शर्मा |
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इस माह
ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से
उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
पता ऊपर दिया ही गया है
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गीतों में-
छंदमुक्त
में-
छंद में-
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ओमप्रकाश नौटियाल |
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परमजीतकौर रीत |
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