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धूप हँसती
है |
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टाँग कर नभ में नदी को
धूप हँसती है
पर्वतों की देह, मन के
घाव रिसते हैं
पत्थरों पर भय अजाने
शस्त्र घिसते हैं
जहाँ रखते पाँव, धरती
वहीं धँसती है
टाँग कर नभ में नदी को
धूप हँसती है
एक सन्नाटा, हवा की
कोख पथराई
कान बाँधे, वक्त हाँफे
छाँव छितराई
कंठ सूखे, प्यास आदिम
रास रचती है
टाँग कर नभ में नदी को
धूप हँसती है
गर्म रेती पर भुनी
जा रही हैं मछलियाँ
एक भी आँसू नहीं
संगदिल हैं बदलियाँ
इंद्रजालिक दिशा धूमिल
आस गसती है
टाँग कर नभ में नदी को
धूप हँसती है
- शशिकांत गीते
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इस माह
ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से
उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
पता ऊपर दिया ही गया है
ईमेल करें या हमारे फेसबुक समूहों में रचना प्रकाशित
करें...
गीतों में-
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अनूप
अशेष |
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आभा
सक्सेना दूनवी
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कल्पना मनोरमा |
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कल्पना रामानी |
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कुमार रवीन्द्र |
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कृष्ण भारतीय |
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गरिमा सक्सेना |
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चन्द्रप्रकाश पाण्डे |
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देवव्रत जोशी
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देवेन्द्र सफल |
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प्रदीप शुक्ल |
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बसंत
कुमार शर्मा |
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ब्रजनाथ श्रीवास्तव |
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मधु
शुक्ला
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मलखान सिंह सिसौदिया
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रंजना गुप्ता |
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राजेन्द्र वर्मा |
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राहुल शिवाय |
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शशिकांत गीते
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शिवानंद सिंह सहयोगी |
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शीलेन्द्र सिंह चौहान |
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सीमा
अग्रवाल |
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सुरेन्द्रपाल वैद्य |
छंदमुक्त
में-
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