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घाटियों में
ऋतु |
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घाटियों में
ऋतु सुखाने लगी है
मेघ धोये वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन
धूप के सत्संग के
पर्वतों पर
छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जातीं घटाओं ने
पेड़‚ फिर पढ़ने लगी हैं‚ धूप के अखबार
फुरसत से दिशाओं में
निकल
फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो‚ पड़ते नहीं हैं ढँग के
आ गए दिन‚ धूप के
सत्संग के
बँध न पाई
निर्झरों की बौह‚ उफनाई नदी
तटों से मुँह 'जोड़ बतियाने लगी है
निकल जंगल की भुजाओं से
एक आदिम गन्ध
आँगन की तरफ आने लगी है
आँख में
आकाश की चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल नेह–देह प्रसंग के
आ गए दिन‚ धूप के
सत्संग के
- विनोद निगम |
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इस माह
ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
गीतों में-
छंदमुक्त
में-
छंद में-
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ओमप्रकाश नौटियाल |
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परमजीतकौर रीत |
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