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ग्रीष्म की तेजस्विनी धूप
सच सच बतलाना
तुम क्यों तमतमाई हो।
बसंत, नवरात्र, बैसाखी को
उस पार खङे कर
और
राखी, दुर्गा पूजा, करवा, दीपावली को
इस ओर रख
किस किस पर क्रोध-ताप दिखाने आई हो।
क्यों नहीं है चैन तुम्हें
नित्य पन्द्रह घण्टे की सावधान मुद्रा
न थकन, न आराम
क्यों बौखलाई हो।
धूप
तुम इतना क्यों तमतमाई हो।
धूप
तुम किसे ढूंढने आई हो।
कितना दर्द है, कितनी पीङा
प्री- मानसून के मैंगो शावर से भी कुलबुलाई हो
मात्र मानसून पर ही रिझाई हो
गन्तव्य को गले लगा ही लौट पाई हो।
धूप
तुम इतना क्यों तङफङाई हो।
धूप
क्या तुम सृष्टि क्रम में हिस्सा निभाने
और जीवन दान देने आई हो
अच्छी हो
भर देती हो आम्र कुंजों में
नींबू, ककङी में
खरबूजे, तरबूज में रस।
पका देती हो सारी फसलें
जीव- जंतुओं को कर देती हो सराबोर।
धूप
तुम जीवनदात्री हो।
- मधु संधु |