|
दूब जिन्दा है
चिलचिलाती धूप में तपने
आग का जंगल
दिखाता नदी तट पर नृत्य
पेड़ क्या पर्वत स्वयं ही
हैं पवन के भृत्य
तैरते हैं फुनगियों की आँख में
ठूँठ के सपने
दूब जिन्दा है
चिलचिलाती धूप में तपने
अनमनी हैं प्रात की पलकें
स्मरण कर दोपहर वाली छाँव
एक गरमीली उमस के ताल में
खड़ा है आकण्ठ डूबा गाँव
1
वक्त त्रैमासिकी मौसम दे चुका है
प्रेस में छपने
1
दूब जिन्दा है
चिलचिलाती धूप में तपने
1
- आचार्य गिरिमोहन गुरु
|