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ग्रीष्म ऋतु का सूर्य है
भड़का हुआ
हाँफती है
भोर तन जलता अनन्तर
घाम को भी घाम लगती है भयंकर
छाँह भी भयभीत जग
हड़का हुआ
अधिकतम है
ताप धरती तच रही है
आर्द्रता की आस आपद मच रही है
भभकता भट्टी- सा घर
धड़का हुआ
शुष्क पोखर
ताल अंधड़-सी हवाएँ
झुलसते तरु – जीव प्यासी सब दिशाएँ
नीर बिन है मृत्यु का
खड़का हुआ
फेरियाँ दे
अथक हारा पेट खाली
असह्य पीड़ा पाँव छाहीं के सवाली
जगत निर्जन श्रमिक दल
कड़का हुआ
उड़ चली है
भाप वृष्टि बन झरेगी
एक फेरा सृष्टि का पूरा करेगी
उलट देगी नीर सब
सुड़का हुआ
- भावना तिवारी |