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गर्मियाँ
हैं |
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देह का बोला पसीना -
गर्मियाँ हैं
बर्फ़ की पिघली शिलायें जल हुई हैं
सूख कर नहरें, नदी मरुथल हुई हैं
आग का आया महीना -
गर्मियाँ हैं
दिन सुनाता धूप के जलते तराने
पेड ठँडी छाँव के हैं शामियाने
मन हुआ लू का कमीना -
गर्मियाँ हैं |
सूरज तो बडा
ग़ुस्सैल है |
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यार ! सूरज तो बहुत ग़ुस्सैल है !
दिन चढ़े से आग बरसाता हुआ
आदमी को देख गुर्राता हुआ
देव है या मरखना
सा बैल है !
गर्म लू से हर शहर सहमा डरा
सिर्फ़ ठँडी छाँव का है आसरा
वो महल है या कोई
खपरैल है !
सब पसीने से मिलेंगे तरबतर
हर गली सुनसान हर सूना सफर
सोच में इसकी कहीं
तो मैल है !
- कृष्ण भारतीय |
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इस माह
ग्रीष्म महोत्सव के
अवसर पर
गीतों में-
छंदमुक्त
में-
छंदों में -
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ओमप्रकाश नौटियाल
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परमजीतकौर रीत
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