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धूप अकेली |
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धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
हो रही है नींव जर्जर
धूर में लिपटी हवेली
शहर की तीखी चुभन में
नेह का आँगन नहीं है
गूँजती किलकारियों का
फूल सा बचपन नहीं है
शुष्क होते पात सारे
बन रहें है इक पहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
छोड़ आये गॉँव में हम
कहकहों के दिन सुहाने
गर्म शामें तप रहीं है
बंद कमरों के मुहाने
रेशमी अहसास सारे
झर गए चंपा चमेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
गर्मियों में ढूँढ़ते है
वृक्ष की परछाइयों को
पत्थरों पर लिख गयीं, उन
प्रेम की रुबाइयों को
मौन क्यों संवाद सारे
सिर्फ माँ है इक सहेली
धूप आँगन में खड़ी है
लग रही कितनी अकेली
- शशि पुरवार |
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इस माह
ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
ग्रीष्म महोत्सव की रचनाओं में-
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