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सूरज की भट्ठी जली
सूखे नदिया ताल
मनमर्ज़ी है धूप की
मौसम है बेहाल
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गरमी की चाबुक चले
मिले कहीं ना नीर
सूखे पोखर ताल सब
खग मृग हुए अधीर
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माघ पूस झाँके नहीं
हठ दिखलाये जेठ
घर के भीतर छाँह छुपी
देख भानु की ऐंठ
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तरुवर मुरझाए खड़े
झरते सारे पात
धूप संग लू कर रही
देखो दो दो हाथ
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धरा तपी बंजर हुई
झुलसे बगिया बाग़
रुखी सूखी है नदी
नभ से बरसे आग
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दिन बरसे अंगारे सा
उमस जगाये रात
नींद उड़ी पर खोलकर
स्वेद भिगोये गात
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सूर्य क्रोध दिखला रहा
सुने नहीं दरकार
अंतस लावा दह रहा
बाहर हाहाकार
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- रचना |