यदि आज है दुख
यदि आज है दु:ख कल सुख होगा, यारों, ग़म से घबराना
क्या,
जो बीत गया उसके बारे में सोच-सोच पछताना क्या।
एक रंग लहू का है सब का, एक डोर से सब हैं बँधे
हुए,
एक नूर से है दुनिया रोशन, फिर अपना क्या बेगाना क्या।
सच्चों को तो हर दौर में दुनिया, मूरख, पागल कहती
है,
फिर भी सच का दामन थामो, सोचो न कहेगा ज़माना क्या।
पौ फटने से पहले अंधियारा और घना हो जाता है,
उस पल जो हिम्मत हार गया, लिखना उसका अफ़साना क्या।
जो ज़ुल्म और ना-इंसाफ़ी को अनदेखा कर जाते हैं,
ऐसों का ज़िंदा रहना क्या, और ऐसों का मर जाना क्या।
है परवाने का काम शमा के आगे-पीछे मंडराना,
नज़दीक शमा के आकर भी, जो जला नहीं, परवाना क्या।
कहते हैं मित्र वही होता है जो विपदा में काम आए,
"कौशिक" जो मुश्किल के आते ही, टूटे वो याराना क्या।
24 दिसंबर 2004
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