ऋतु-चक्र
सूर्य किरणें हो गईं है प्रखर लू चलने लगी है,
पेड़-पौधे भी हैं कुम्हलाये,धरा जलने लगी है,
परबतों पर जो जमी थी बर्फ़ वो गलने लगी है,
आ भी जा कि बिन तेरे तन्हाई अब ख़लने लगी है।
टीन पर बरखा की बूँदों का मधुर संगीत है,
झूमते बन चीड़ के, पुरवाई गाती गीत है,
रंग ले आई लगन चातक की हो गई जीत है,
आ गई सावन की रुत, क्यों दूर मेरे मीत है।
झोंकों से हवा के झर गए हैं पीत सूखे पात,
प्रेतों से खड़े हैं ठूँठ बन पेड़ों के सुंदर गात,
इस मौसम में होते साथ तुम, थी और ही कुछ बात,
आ जाओ शरद की पूर्णिमा की आ रही है रात।
हिमाच्छादित हैं परबत, पेड़, बन, मैदान, छप्पर सब,
बदन में झुरझुरी उठती है चलता है पवन जब-जब,
कफ़न ओढ़ा है फूलों ने, सिकुड़ कर रह गए दिन अब,
हुई आरंभ रुत हेमंत की, तुम आ रहे हो कब।
नींद टूटी पेड़-पौधों की, शगूफ़े खिल गए,
घाव धरती को मिले पतझड़ से सारे सिल गए,
झील में महके कँवल बरबस लुभा ले दिल गए,
आ मेरे जीवन वसंत आ देख बिछड़े मिल गए।
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