महानगर
महानगर!
महानगर!
तुम्हारे पास जो भी आता है।
उस पर
तुम्हारा ही रंग चढ़ जाता है।
तभी तो
जब एक मनुष्य
कूड़ेदान से लिपट कर
जूठन से अपना पेट भर रहा था,
पास से गुज़र रहे
मुझ पर
कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
मैं भी
दूसरे हज़ारों राहगीरों की तरह
चलता रहा।
मेरी आँखों ने उसे देख कर भी
अनदेखा कर दिया।
मेरा दिल पत्थर का हो गया।
और थोड़ी देर बाद
उसी कूड़ेदान से
एक कुत्ता भी
अपना पेट भर रहा था।
महानगर!
तुम कितने महान हो।
तुम्हें कुत्ते और आदमी में
कोई फ़र्क नज़र नहीं आता।
दोनों की भूख
एक ही कूड़ेदान से मिटाते हो।
महानगर!
तुम कितने समदर्शी हो।
विशाल अट्टालिकाओं के साथ हैं,
झुग्गियाँ-झोंपड़ियाँ।
एक तरफ़
पाँच तारा होटलों में
थिरकते कदम,
रंगीन शामें,
डिस्को, कैबरे,
पानी की तरह बहती शराब,
और दूसरी तरफ़
भूख़, गऱीबी,
फ़ुटपाथों पर पड़े लोग,
कालीघाट पर
ग्राहकों की राह तकता
रोटी के लिए बिकता शबाब।
महानगर!
ये कैसा नशा है तुम्हारे नाम में
कि आदमी
फ़ुटपाथ पर, झुग्गियों में,
मुरगी के दड़बों से घरों में रह कर भी,
गंदगी, प्रदूषण, भूख, ग़रीबी,
हर दु:ख सह कर भी,
तुम्हारे ही गुण गाता है।
महानगर!
तुम्हारी हवा में
ये कैसा ज़हर है,
जो आदमी को आदमी नहीं
एक मशीन बना देता है।
चेहरों पर
झूठी मुस्कानें चिपका देता है।
हमदर्दी, प्यार, अपनापन
शब्दों को अर्थहीन कर देता है।
तुम्हारी धरती पर
पाँव पड़ते ही
इंसान बदल जाता है।
महानगर!
तुम्हारे पास जो भी आता है।
उस पर
तुम्हारा ही रंग चढ़ जाता है।
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