मेरी धरती के लोगों
शोषण, ख़ुदगर्ज़ी, भूख़, गरीबी, बेकारी के
विरुद्ध उठो।
मेरी धरती के लोगो तुम, उठ्ठो छेड़ो अब युद्ध, उठो।
हैं भेड़ों की खालों में आदमखोर भेड़िये छिपे हुए,
अवसर तलाशते रहते हैं, हो चेतन और प्रबुद्ध, उठो।
जलते हैं घर मज़लूमों के, जीवन कौड़ी के मोल बिके,
दम तोड़ रही है मानवता, तुम हुए नहीं क्यों क्रुद्ध, उठो।
अब सत्य, अहिंसा, स्नेह, शांति सब बनी किताबी
बातें हैं,
चाणक्य बनो तुम कृष्ण बनो, भूलो सुकरात और बुद्ध, उठो।
होने दो फिर से कुरुक्षेत्र फिर नया सवेरा आने दो,
धरती का बोझ करो हल्का, है वातावरण अशुद्ध, उठो।
अब छिन्न करो तुम बाहर के सारे कृत्रिम, झूठे
बंधन,
दिल के दरवाज़ों को कब तक तुम रखोगे अवरुद्ध, उठो।
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