भटके-भटके हुए
भटके-भटके हुए, बहके-बहके हुए,
क़ाफ़िले ये उजड़ कर किधर हैं चले।
है धुआँ आँखों में, तन पे चिथड़े लिए,
पेट की आग में ये झुलसते चले।
कोई रहबर नहीं, न कोई रहनुमाँ,
हैं बिछाते ज़मीं, ओढ़ते आस्माँ,
पंजरों से बदन, होंठ पथराए से,
दर्द की दास्तानें सुनाते चले।
हैं जिए जा रहे बोझ मन पर लिए
क़ैद जिस्मों के पिंजरों में रूहें किए।
डूबती नब्ज़ हाथों में थामे हुए।
मार कर सारे अहसास लुटते चले।
24 दिसंबर 2004
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