सूरज का इंतज़ार
सूरज का इंतज़ार करते युग बीत गया।
जाने कब रिस-रिस कर अंर्तघट रीत गया।
नैनों के दीप जले हैं हर-दम, हर पल-छिन,
जाने कब लौट आए, मन का जो मीत गया।
गाँव छोड़ जब से हम शहरों में आए हैं,
मुस्कानें खो बैठे, होंठों का गीत गया।
जीवन की परिभाषा कोई उनसे पूछे,
सड़कों पर सोते-सोते जिनका शीत गया।
वो ठाने बैठे हैं करने या मरने की,
वो विनाश में रत, हम रचने में गीत नया।
मूल्य गए जीवन के एक अंधी दौड़ लगी,
आँखों को बंद किए भागा जो जीत गया।
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