जो न झुकते थे
(काश्मीर के विस्थापितों के प्रति)
जो न झुकते थे किसी के सामने रब के सिवा।
उन सरों को हर किसी के सामने झुकना पड़ा।
इक टपकते टेंट में दुनिया सिमट कर रह गई,
स्वर्ग अपना छोड़ रातों-रात भाग आना पड़ा।
धूप मैदानों की गोरे रंग को झुलसा गई,
नन्हे बच्चों को खुले आकाश में सोना पड़ा।.
बाँटते थे जो खुले दिल से ज़रूरतमंद को,
खुद सवाली बन के उन को हाथ फैलाना पड़ा।
दर्द खोने का नहीं पर ग़म है तो इस बात का,
ज़ख़्म हर अपना हमें सौ बार दिखलाना पड़ा।
स्वप्न तुलमुल और गणपतयार बन कर रह गए,
शारिका के भक्तों को माँ से जुदा होना पड़ा।
ये सिला उनको मिला कहने का वंदे मातरम,
गोलियाँ खानी पड़ीं और सूली पर चढ़ना पड़ा।
था ये उनका दोष करना प्यार हिंदुस्तान को,
देश में अपने ही विस्थापित जिन्हें बनना पड़ा।
जो न झुकते थे किसी के सामने रब के सिवा।
उन सरों को हर किसी के सामने झुकना पड़ा।
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