कब से
खड़े हैं
कब से खड़े हैं दर पे तेरे मेहरबाँ तो हो।
हम पर भी रहमतों का कोई आस्माँ तो हो।
समझौता ज़िंदगी से कभी भी नहीं किया,
इतनी-सी बात पर के कोई इम्तिहाँ तो हो।
पत्थर को बोलने का हुनर इसलिए दिया,
अपना भी कुछ वजूद हो कोई निशाँ तो हो।
शाहों के मक़बरों से शिकायत नहीं हमें,
ज़िंदों के वास्ते मगर इक आशियाँ तो हो।
रिश्ता कोई तो तेरे मेरे दरमियाँ रहे,
हमसे न कर तू प्यार मगर बदगुमाँ तो हो।
''कौशिक'' सुनाएँगे तुम्हें हम बाद में ग़ज़ल
पहले हमारे शहर में अमनो-अमाँ तो हो।
9 मार्च 2007
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