सुनामी के प्रति
धरती ने ली अँगड़ाई तो मौसम बदल गया
निकली जो इसकी आह तो पत्थर पिघल गया
कुदरत ने क्या कहा कि समंदर उबल पड़ा
किसका कुसूर था मगर किसको निगल गया
जो लोग खाते थे कभी मेहनत की रोटियाँ
मुट्ठी से उनकी अन्न का दाना फिसल गया
उस रोज़ की आबोहवा आफ़त से कम न थी
मौजों का ढंग देखकर कलेजा दहल गया
पानी पहाड़ बनके जो दौड़ा तो क्या हुआ
बस्ती तबाह हो गई आँगन कुचल गया
उस दिन सहारा बन गईं पेड़ों की फुनगियाँ
जलजला आया मगर आकर निकल गया
'घायल' मुनासिब है नहीं सागर को छेड़ना
छेड़ा गया तो माजरा पल में बदल गया
16 फरवरी 2006
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