गया कोई
मुझे पिला के ज़रा-सा क्या गया कोई
मेरे नसीब को आकर जगा गया कोई
मेरे क़रीब से होकर गुज़र गई दुनिया
मेरी निगाह में लेकिन समा गया कोई
मेरी गली की हवाओं को क्या हुआ आख़िर
दर-ओ-दीवार को दुश्मन बना गया कोई
मेरे हिसाब में ज़ख़्मों का कोई हिसाब नहीं
मेरे हिसाब को आकर मिटा गया कोई
मेरी वफ़ा ने तो चाहा कि चुप रहूँ लेकिन
ज़रा-सी बात पर मुझको रुला गया कोई
ग़मों के दौर में 'घायल' मेरी खुशी के लिए
किसी मज़ार पर चादर चढ़ा गया कोई
1 जून 2007 |