धूप राहों में
कभी जब धूप राहों में किसी का तन जलाती है
इशारों से उसे हर पेड़ की टहनी बुलाती है
किसी की जान जाती है कभी जब प्यास के मारे
उसे सागर नहीं लेकिन नदी पानी पिलाती है
जिसे कुदरत सिखाती है ज़मीं की गोद में सोना
उसी के वास्ते वो हर घड़ी पंखा डुलाती है
जहाँ जंगल नहीं होता जहाँ पर्वत नहीं होता
वहाँ की धूप में बस्ती हमेशा बिलबिलाती है
मुनासिब है नहीं देना ज़मीं को माँ से कम दर्जा
पखेरू को ज़मीं दाना हमें खाना खिलाती है
खुदा का नूर है कुदरत उसूलों में बँधी 'घायल'
उन्हें जो तोड़ देता है उसे पानी पिलाती है
24 जुलाई 2006
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