जो पत्थर काटकर
जो पत्थर काटकर सबके लिए
पानी जुटाता है
उसे पानी नहीं मिलता
पसीने में नहाता है
लगा
रहता है जो हर दिन किसी का
घर बनाने में
उसी को घर नहीं होता उसे
मौसम सताता है
जुता रहता है बैलों की तरह
जो खेत में दिन भर
उसी का अपना बच्चा भूख से
आँसू बहाता है
बनाए जिसके धागों से बने हैं
आज ये कपड़े
उसी का तन नहीं ढँकता
कोई गुड़िया सजाता है
जलाता है बदन कोई हमेशा
धूप में 'घायल'
ज़रा-सी गर्मी लगने पर कोई
पंखा चलाता है
१८
फरवरी २००८
|