ज़माने से दीवाली हर बरस हम यों
मनाते हैं
अंधेरी रात का दामन सितारों से सजाते हैं
चराग़ों से सजी गलियाँ नहाती हैं
उजालों में
ज़माना क्या मनाएगा दीवाली हम मनाते हैं
अंधेरी रात का सजना लुभाता है
फरिश्तों को
सितारे देखते हैं देखकर फिर सर झुकाते हैं
मुहब्बत दौड़ती है जब लहू बनकर
शिराओं में
तभी तो हम ग़मों के दौर में भी मुस्कुराते हैं
वफ़ाएँ जब तलक होंगी अंधेरा हो
नहीं सकता
यही तो बात है कि हम उजालों में नहाते हैं
अमन की राह में रोड़े बिछाते लोग
हैं 'घायल'
मगर हम प्यार से रोड़े हमेशा ही हटाते हैं
-राजेंद्र पासवान 'घायल'
२७ अक्तूबर २००८
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