हम बिखर भी गए
हम बिखर भी गए तो ज़माना कहे
हम हैं बिखरे हुए खुशबुओं की तरह
ग़ैर को भी हम अपना बनाते चलें
भुले-भटके को रस्ता दिखाते चलें
पाँव में जिनके छाले हैं उनके लिए
हम सहारा बनें बाजुओं की तरह
शब्द इंकार हैं तो ये इकरार भी
ये जो तक्रार हैं तो ये मल्हार भी
शब्द निकलें तो मन का अँधेरा मिटे
जलते-बुझते रहें जुगनुओं की तरह
हम जो पत्थर भी हों तो पिघलते
रहें
जो समंदर भी हों ते मचलते रहें
आँधी जज़्बात की जब चले तो लगे
साँस भी बज उठी घुंघरुओं की तरह
24 मार्च 2007 |