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अनुभूति में संजय ग्रोवर की रचनाएँ

नई ग़ज़लें--
उसे अपने दिल में
जब भी लोगों से मिलता हूँ
दिन हैं क्या बदलाव के
भेद क्या बाकी बचा है
मोहरा अफवाहें फैलाकर
यह जुदा इक मसअला है

अंजुमन में
असलियत के साथ
आज मुझे
आ जाएँगे
इनको बुरा लगा
उसको मैं अच्छा लगता था
क्यों करते हैं मेहनत
किस्सा नहीं हू
कोई बात हुई
ग़ज़लों में रंग
जो गया
डर में था
तितलियाँ
तीर छूटा
तुम देखना
तौबा तौबा
दर्द को इतना जिया
दासी बना के मारा
पागलों की इस कदर
बह गया मैं
बाबा
बोलता बिलकुल नहीं था
मौत की वीरानियों में
मंज़िलों की खोज में
रोज़ का उसका
लड़केवाले लड़कीवाले
लोग कैसे ज़मीं पे
सच कहता हूँ
सोचना
हो गए सब कायदे

महिला दिवस पर विशेष
स्त्री थी कि हँस रही थी
हमारी किताबों में हमारी औरतें

 

कोई बात हुई

दूर से बात बनाना ये कोई बात हुई
शहर को छोड़ के जाना ये कोई बात हुई

सब अपने दर्द सँभाले कि दुख तुम्हारे सुनें
हर समय ज़ख़्म दिखाना ये कोई बात हुई

निकल के घर से अपनी आग हर तरफ़ बाँटों
यों अपने दिल को जलाना ये कोई बात हुई

हमे है यार की चाहत न तुम मसीहा बनो
सभी से प्यार जताना ये कोई बात हुई

अब तो इस रंज के माहौल पे आती है हँसी
रात दिन आँसू बहाना ये कोई बात हुई

मिलोगे लोगों से तब ही तो खुदको जानोगे
कहीं पे आना न जाना ये कोई बात हुई

प्यार में डूबो तो फिर और उभरना कैसा
कहीं से लौटके आना ये कोई बात हुई

दिल में गर दर्द भरा है कभी तो छलकेगा
अश्क आँखों के छिपाना ये कोई बात हुई

प्यार को बोझ की मानिंद अब न ढोएँगे
कि नाज़ों-नखरे उठाना ये कोई बात हुई

कोई दिन यों भी पिलाओ कि फिर न उतरे कभी
आए दिन पीना-पिलाना ये कोई बात हुई

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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