बोलता बिलकुल नहीं था
वो गरचे बोलता बिलकुल नहीं था
मगर खामोश भी लगता नहीं था
वही तो बोलता रहता था हरदम
कि जिसपर बोलने को कुछ नहीं था
जो टहनी पत्तियों से भर गई थी
उसी का पेड़ थर-थर काँपता था
नज़र उतनी ही ज़्यादा बेहया थी
बदन को जितना ज़्यादा ढाँपता था
बगल की जिस गली से रास्ता था
पड़ोसी की बगल में इक छुरा था
वो जब लाशें गिरा कर हँस रहे थे
खुदा कोने में बैठा रो रहा था
कहीं गाएँ बचाईं जा रहीं थीं
कहीं इंसान ज़िन्दा जल रहा था
वो जब लोगों से मिल कर लौटता था
उसे अपना पता मिलता नहीं था
मेरे दुश्मन से उसकी दोस्ती थी
यकीनन उसका सरमाया यही था
१८ मई २००९
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