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अनुभूति में रामेश्वर कांबोज हिमांशु की रचनाएँ--

ताँका में-
बंद किताब खुली किताब

माहिया में-
आँखों में दरिया

छंदमुक्त में-
आम आदमी
कविता क्या है
कहाँ चले गए हैं गिद्ध
पुरबिया मजदूर

अंजुमन में—
अंगार कैसे आ गए
अधर पर मुस्कान
आजकल
इंसान की बातें
ज़िंदगी की लहर
मुस्कान तुम्हारी

हास्य व्यंग्य में—
कर्मठ गधा
कविजी पकड़े गए
पुलिस परेशान

दोहों में—
गाँव की चिट्ठी
वासंती दोहे

कविताओं में—
ज़रूरी है
बचकर रहना
बेटियों की मुस्कान
मैं घर लौटा

मुक्तकों में—
सात मुक्तक

क्षणिकाओं में—
दस क्षणिकाएँ

गीतों में—
आ भाई सूरज
आसीस अंजुरी भर
इस बस्ती मे
इस शहर में
इस सभा में
उजियारे के जीवन में
उदास छाँव
उम्र की चादर की
कहाँ गए
कितना अच्छा होता
खड़े यहाँ पर ठूँठ
गाँव अपना
तुम बोना काँटे
दिन डूबा
धूप की चादर
धूप ने
ये घर बनाने वाले
लेटी है माँ

संकलन में—
नया साल- नई भोर
नया साल- नया उजाला
होली है- आया वसंत

  बारह ताँका- 

बन्द किताब

एक

बन्द किताब
कभी खोलो तो देखो
पाओगे तुम
नेह भरे झरने
सूरज की किरने

दो

बन्द किताब
जब-जब भी खोली
पता ये चला-
तुमसे पाया बेहिसाब
चुकाया न कुछ भी

तीन

बन्द किताब
जो खुली अचानक
छलकी आँखें
हर पन्ना समेटे
सिर्फ़ तेरी कहानी

चार

बन्द किताब
पन्ने जब पलटे-
शिकवे भरे
फ़िक्र रही लापता
कोई जिये या मरे

पाँच

बन्द किताब
बरसों बाद खुली
खुशबू उड़ी
हर शब्द से तेरी
मधुर छुअन की

छह

बन्द किताब
कभी खोल जो पाते
पता चलता-
तुम रहे हमारे
जीवन से भी प्यारे

९ अप्रैल २०१२
 

खुली किताब

सात

खुली किताब
थी ज़िन्दगी तुम्हारी
बाँच न सके
आज बाँचा तो जाना
अनपढ़ थे हम

आठ

खुली किताब
झुकी तेरी पलकें
नैन कोर से
डब-डब करके
गर्म आँसू छलके

नौ

खुली किताब
ये बिखरी अलकें
आवारा घूमे
ज्यों दल बादल के
ज्यों खूशबू मलके

दस

खुली किताब
तेरा चेहरा लगे
पन्ना-पन्ना मैं
जब पढ़ता जाऊँ
सिर्फ़ तुझको पाऊँ

ग्यारह

खुली किताब
रहा दिल तुम्हारा
पढ़ न पाए
तो समझ न पाए
सदियों पछताए

बारह

खुली किताब
नज़र आया वही
लाल गुलाब
गले लग तुमने
दिया पहली बार

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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