| आसीस अंजुरी भर आसीस अंजुरी भर लिएहर द्वार पर
 हमने पुकारा
 छू लिया
 माथा तुम्हारा
 हम पावन हो गए।
 छलकता सागर समेटेभुजपाश में बिजली भरे हम,
 बाँट दें सर्वस्व किसको
 व्याकुल बादल-से फिरे हम;
 उतर काँधों-पर तुम्हारे
 फिर सावन हो गए।
 आज राहत मिल गईसभी सुख यों
 अपने लुटाकर,
 और हल्का
 हो गया मन
 पीर का स्पर्श पाकर
 इस द्वार पर माथा झुकाकर
 स्नेह के आँसू हमारे
 मनभावन हो गए।
 १ जनवरी २००५  |