| वासंती दोहे वसंत द्वारे है खडा, मधुर-मधुर 
                  मुस्कान।साँसों में सौरभ घुला, जग भर से अनजान।।
 चिहुँक रही सुनसान में, सुधियों 
                  की हर डाल।भूल न पाया आज तक, अधर छुअन वह भाल।।
 जगा चाँद है देर तक आज नदी के 
                  कूल।लगता फिर से गड़ गया, उर में तीखा शूल।।
 मौसम बना बहेलिया, जीना मरना 
                  खेल।घायल पाखी हो गए, ऐसी लगी गुलेल।।
 अंजुरी खाली रह गई, बिखर गए सब 
                  फूल।उनके बिन मधुमास में, उपवन लगते शूल।।
 १ मार्च २००६  |