| लेटी है माँ 
                  आँगन के बीचों-बींचसफ़ेद बुर्राक कपड़ों में
 लेटी है माँ।
 माँ, जिसकी बातें-
 भोर की हवा
 कुदकती अमराइयों में
 बौर को सहलाती गुनगुनाती।
 माँ, जिसका स्पर्श-
 परियों की कथा सुनते बच्चे
 अपने उलझे बालों में
 महसूसते,
 जिद्दी बच्चों की रुलाई
 हथेलियों में डूब जाती
 और फूट पड़ती
 भुट्टे के दानों-सी हँसी।
 माँ, जिसकी आँखों में-सातों समुंदर का पानी था
 सारे समंदर
 तैरकर पार किए थे माँ ने
 थकान को निगलते हुए।
 माँ, जिसके जीवन का
 कोई किनारा नहीं था
 था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार
 माँ थी-बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी
 वही रोशनी नहा-धोकर
 लेटी है आँगन में।
 और मेरी बड़ी बहिन!
 बुत बनी बैठी है
 आँखों की चमक गायब है
 क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान
 न ही किसी काफ़िले का
 दूर तक नामोनिशान,
 सोचता हूँ- इसकी आँखों के लिए
 कहाँ से लाऊँ चमक?
 कहाँ से लाऊँ सूरज-धुली मुस्कान?
 और मेरी छोटी बहिन!
 उसके सिर का आकाश
 लेटा है आँगन में
 उसकी हिचकियाँ, उसके आँसू
 लगता है कायनात को डुबो देंगे
 उसका ज़र्द चेहरा
 साक्षात पीड़ा बन गया है
 कहाँ से लाऊँ मैं आकाश,
 जिसे उसके सिर पर ढक दूँ?
 कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ,
 जो उसके आँसू सोख लें?
 उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा 
                  दूँजो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाएँ,
 उसके ज़र्द चेहरे पर, गुलाब खिला दें।
 कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र?
 वह तो लेटी है- निश्चिंत होकर आँगन में।
 मैं?
 भाई से तब्दील हो रहा हूँ
 अचानक सफ़र पर निकले पिता में
 आँगन में लेटी माँ में
 ताकि लौटा सकूँ - जो चला गया
 जो लौटा सकता है - आँखों की चमक
 चेहरों के ओस नहाए गुलाब
 बड़ी से बड़ी कीमत पर।
 ९ मई २००५ |