मैं घर लौटा
बहुत मैं घूमा पर्वत-पर्वत
नदी घाट पर खूब नहाया
और पिया तीरथ का पानी
आग नहीं मन की बुझ पाई।
बहुत नवाया मैंने माथा
मन्दिर और मज़ारों पर भी
खोज न पाया अपने मन का
चैन ज़रा भी।
रेगिस्तानों में चलकर के
दूर गया मैं सूनेपन तक
आग मिली बस आग मिली थी।
मैं लौटा सब फेंक-फाँक कर
भगवा चोला और कमंडल
और खोजने की बेचैनी
उन सबको जो नहीं पास थे
पहले मेरे।
मैं घर लौटा।
आकर बैठा था आँगन में
टूटी खटिया पेड़ नीम का
बिटिया आई दौड़ी-दौड़ी
दुबकी गोदी में वह आकर
पत्नी आई सहज भाव से
और छुआ मुझको धीरे-से।
बरस पड़ी जैसे शीतलता
और चाँदनी भीनी-भीनी
मेरे छोटे-से आँगन में
मैं मूरख था अब तक भटका
बाहर-बाहर
झाँक न पाया था भीतर मैं
पावन मंदिर तीर्थ जहाँ था
और जहाँ थे ऊँचे पर्वत
शीतल-शीतल
और भावना की नदियाँ थीं
कल कल बहतीं छलछल बहतीं
झोंके खुशबू के भरे हुए
बात-बात में
जुड़े हुए थे हम सब ऐसे
नाखून जुड़ा हो साथ माँस
के युग-युग से।
१६ फरवरी २००६ |