उदास छाँव
नीम पर बैठकर
नहीं खुजलाता
कौआ अब अपनी पाँखें
उदास-उदास है अब
नीम तले की शीतल छाँव।
पनघट पर आती
कोई राधा
अब न बतियाती
पनियारी हैं आँखें
अभिशप्त-से अधर
विधुर-सा लगता सारा गाँव।
सब अपने में खोए
मर भी जाए कोई
छुपकर निपट अकेला
हर अन्तस रोए;
चौपालों में छाया
श्मशानी सन्नाटा
लगता किसी तक्षक ने
चुपके से काटा
ठिठक-ठिठक जाते
चबूतरे पर चढ़ते पाँव।
न जवानों की टोली
गाती कोई गीत
हुए यतीम अखाड़े
रेतीली दीवार-सी
ढह गई
आपस की प्रीत
गली-गली में
घूमता भूखे बाघ-सा अभाव।
१ जनवरी २००५ |