धूप ने
धूप ने
उठते बगूलों-
के इधर ही रुख मोड़े
खींचकर
पछवा हवा की-
डोर, तीखे बाण छोड़े।
घास है
झुलसी हुई-सी
और नभ में भी जलन है
तप रहा
अंगार जैसा
धरा का
नंगा बदन है
जल हुआ तेजाब तीखा
धूल के
चलते हथौड़े।
नई डामर-
की सड़क भी
अब भाड़-सी
तपने लगी
छाँव की
किलकारियाँ भी
रह गई
जैसे ठगी,
आग ने
चुपचाप आकर
पीठ पर जड़ दिए कोड़े।
१ जनवरी २००५ |